"घर क्या होता है?"
- संस्कृत का उदय
- 7 फ़र॰
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जिस प्रकार राजा को अपना रनिवास तथा महल, गरीब को अपनी झोंपड़ी प्यारी होती है उसी प्रकार पक्षी को अपना घोंसला प्यारा होता है।
घर क्या होता है? क्यों बनाना चाहिए? क्या लाभ होता है? आदि प्रश्नों के उत्तर में शास्त्र कहता है।
स्त्रीपुत्रादिक भोग सौख, जननं धर्मार्थकामप्रदम्।
जंतूनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुधर्मापहम् ।। वापीदेवगृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते ।
गेहं पूर्वमुशंति तेन विवुधः श्री विश्वकर्मादयः ।।
अर्थात्:- स्त्री-पुत्रादि के सुखोपभोग, अर्थ-धर्म, काम-मोक्ष चतुवर्ग के साधन का हेतु, सरदी-गरमी एवं हिंसक जंतुओं आदि द्वारा प्रदत्त कष्टों की रक्षा का हेतु तथा प्राणियों का सुख-स्थान घर ही तो है।
तात्पर्य है कि गृहस्थ-परिवार का सुख, धर्म आदि की प्राप्ति, सांसारिक कष्टों का निवारण सभी कुछ तब ही संभव है, जबकि अपना घर हो, छोटा हो या बड़ा हो।
दूसरे पद में शास्त्रकार कहता है कि मनुष्य को जो सुफल मंदिर, जल-स्थान तथा छाया का स्थान निर्माण करने से होता है, वही फल विधिपूर्वक गृह-निर्माण करने से होता है। तात्पर्य है कि घर बनाने से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष आदि सभी का लाभ होता है इसलिए विश्वकर्मा आदि ने मनुष्य को सर्वप्रथम घर बनाने का निर्देश दिया है।
घर जीवन की स्थायी आवश्यकता है। रोज-रोज घर नहीं बनाए जा सकते, इसलिए मकान को एक बार में ही दीर्घकाल की आवश्यकता के अनुसार स्थायी एवं मजबूती के आधार पर बनाना चाहिए।
इस विषय में वास्तुकार का आदेश है-
कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं मृण्मये दशसङ्ग गुणम्।
एष्टिके शतकोटिघ्नं शैलेद्रनन्तम् फलं गृहे ।।
अर्थात् घास-फूस-पत्तों का घर बनाने से करोड़ गुना फल, मिट्टी का घर बनाने से दस करोड़ गुना, ईंट का घर बनाने से सौ गुना तथा पत्थरों का घर बनाने से अनन्त गुना पुण्य फल की प्राप्ति होती है।
तात्पर्य है कि घर को स्थायित्व की दृष्टि से दीर्घावधि तक चलने वाला बनाना चाहिए और सर्वाधिक मज़बूत निर्माण पत्थर का होता है, इसलिए पत्थर के निर्माण से अनंत गुना पुण्य फल लिखा है। आज भी हजारों वर्षों पूर्व बने हुए पत्थरों से निर्मित राजप्रासाद एवं किले आदि देखने को मिलते हैं।
मनुष्य में स्वभावतः ही अपना एक घर होने की इच्छा होती है। दूसरे के घर में तो एक दिन भी काटना कठिन हो जाता है, पर गृह के विषय में आचार्य चाणक्य का कथन है कि
"परसदननिविष्टः को लघुत्व न याति"
इस विषय में शास्त्र का कथन है कि-
परगेहकृतातस्सर्वाः श्रौतस्मार्तक्रियाः शुभाः।
निष्फलाः स्युर्यतस्तासां भूमीशः फलमश्नुते ।।
अर्थात् दूसरे के मकान में किए गए सभी धार्मिक कार्य निष्फल होते हैं। यदि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से किए भी जाएँ तो उसका शुल्क (किराया) अवश्य ही दे देना चाहिए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि संसार में रहने के लिए स्वयं तथा आश्रितों के सुख-दुःख हेतु, देव-अतिथि के सत्कार आदि हेतु मनुष्य को घर अवश्य ही बनाना चाहिए। परंतु घर स्थायी हो, सुख-संपत्ति समृद्धि, वंश वृद्धि तथा चतुर्दिक शुभ-कल्याणकारक हो, इसके लिए आवश्यक है कि पूर्ण शास्त्रोक्त विधि से ही भवन निर्माण किया जाए। किस ग्राम में निवास करना चाहिए? भूमि कैसी हो? कब खरीदनी चाहिए? नींव कब खोदें? नींव स्थापना एवं शिलान्यास कब करें? दरवाजा, चौखट, खिड़कियाँ कैसी किस ओर हों? रसोई, स्नान घर, पूजा-घर, धन-स्थान आदि कहाँ हो? आदि का विचार अत्यंत सूक्ष्मतापूर्वक करना चाहिए, अन्यथा कुछ भी अशुभ हो सकता है। धनादि हानि, घर दूसरे हाथों में जाने से लेकर रोग, मृत्यु, कुल-क्षय आदि तक हो सकता है। इन सब बातों का विचार है वास्तुशास्त्र
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